जिसका वैज्ञानिक नाम विदानिया सोम्नीफेरा (Withania somnifera)है,
भारत में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण औषधीय फसल है जिसमें कई तरह के
एल्केलॉइड्स पाये जाते है। अश्वगंधा को शक्तिवर्धक माना जाता है। भारत
के अलावा यह औषधीय पौधा स्पेन, फेनारी आईलैण्ड, मोरक्को, जार्डन, मिस्र,
पूर्वी अफ्रीका, बलुचिस्तान (पाकिस्तान) और श्रीलंका में भी पाया जाता है।
भारतवर्ण में यह पौधा मुख्यतय: गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा के मैदानों, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, कर्नाटक,
केरल एवं हिमालय में 1500 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। मध्य प्रदेश
में इस पौधे की विधिवत् खेती मन्दसौर जिले की भानपुरा, मनासा, एवं जादव
तथा नीमच जिले में लगभग 3000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जा रही है।
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अश्वगंधा के पौधे |
अश्वगंधा के पौधे 1 से 4 फीट तक ऊँचे होते है। इसके ताजे पत्तों
तथा इसकी जड़ को मसल कर सूँघने से उनमें घोड़े के मूत्र जैसी गंध आती
है। संभवत: इसी वजह से इसका नाम अश्वगंधा पड़ा होगा। इसकी जड़ मूली
जैसी परन्तु उससे काफी पतली (पेन्सिल की मोटाई से लेकर 2.5 से 3.75
अश्वगंधा
के
पौधे
से0मी0 मोटी) होती है तथा 30 से 45 से0मी0 तक लम्बी होती है। यद्यपि यह
जंगली रूप में भी मिलती है परन्तु उगाई गई अश्वगंधा ज्यादा अच्छी होती
है।
अश्वगंधा में विथेनिन और सोमेनीफेरीन एल्केलाईड्स पाए जाते हैं
जिनका उपयोग आयुर्वेद तथा यूनानी दवाइयों के निर्माण में किया जाता है।
इसके बीज, फल, छाल एवं पत्तियों को विभिन्न शारीरिक व्याधियों के
उपचार में प्रयुक्त किया जाता है। आयुर्वेद में इसे गठिया के दर्द, जोड़ों की
सूजन, पक्षाघात तथा रक्तचाप आदि जैसे रोगों के उपचार में इस्तेमाल किए
जाने की अनुशंसा, की गई है। इसकी पत्तियाँ त्वचारोग, सूजन एवं घाव भरने
में उपयोगी होती हैं। विथेनिन एवं सोमेनीफेरीन एल्केलाइड्स के अलावा
निकोटीन सोमननी विथनिनाईन एल्केलाइड भी इस पौधे की जड़ों में पाया
जाता है। अश्वगंधा पर आधारित शक्तिवर्धक औषधियाँ बाजार में टेबलेट,
पावडर एवं कैप्सूल फार्म में उपलब्ध हैं। इन औषधियों को भारत की समस्त
अग्रणी आयुर्वेदिक कम्पनियों द्वारा शक्तिवर्धक कैप्सूल या टेबलेट फार्म में
विभिन्न ब्राण्डों जैसे वीटा-एक्स गोल्ड, शिलाजीत, रसायन वटी, थ्री-नॉट-थ्री,
थर्टीप्लस, एनर्जिक-31 आदि के रूप में विक्रय किया जाता है। इन औषधियों
में लगभग 5-10 मिलीग्राम अश्वगंध पावडर का उपयोग एक कैप्सूल या
टेबलेट में किया जाता है। जिसका बाजार विक्रय मूल्य 10 से 15 रूपये प्रति
कैप्सूल होता है, जबकि अश्वगंधा की तैयार फसल का विक्रय मूल्य मात्रा 40.
00 रूपये से 80.00 रूपये प्रति किलो तक मिलता है।
अश्वगंधा की खेती की विधि
अश्वगंधा मूलत: शुष्क प्रदेशों का औषधीय पौधा है। संभवतया यह
कहना अनुचित नहीं होगा कि वर्तमान में जिन औषधीय पौधों की खेती काफी
बड़े स्तर पर हो रही है उनमें अश्वगंधा अपना प्रमुख स्थान रखता है। एक
अनुमान के अनुसार वर्तमान में हमारे देश के विभिन्न भागों में लगभग 4000
हैक्टेयर के क्षेत्र में इसकी खेती हो रही है जिसके कई गुना अधिक बढ़ाए जा
सकने की संभावनाएं हैं। वर्तमान में इसकी व्यापक स्तर पर खेती मध्य प्रदेश
के विभिन्न भागों के साथ-साथ राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश,
कर्नाटक आदि राज्यों में होने लगी है। इन क्षेत्रों में हुए किसानों के अनुभवों
के आधार पर अश्वगंधा की कृषि तकनीक निम्नानुसार समझी जा सकती है-
अश्वगंधा का जीवन चक्र –
अश्वगंधा एक बहुवष्रीय पौधा है तथा यदि इसके लिए निरंतर सिंचाई
आदि की व्यवस्था होती रहे तो यह कई वर्षों तक चल सकता है परंतु इसकी
खेती एक 6-7 माह की फसल के रूप में ली जा सकती है। प्राय: इसे देरी
की खरीफ (सितम्बर माह) की फसल के रूप में लगाया जाता है तथा
जनवरी-फरवरी माह में इसे उखाड़ लिया जाता है। इस प्रकार इसे एक 6-7
माह की फसल के रूप में माना जा सकता है जिसकी बिजाई का सर्वाधिक
उपयुक्त समय सितम्बर का महीना होता है।
उपयुक्त जलवायु –
अश्वगंधा शुष्क एवं समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है। इसकी सही बढ़त
के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होता है। प्राय: इसे अगस्त-सितम्बर
माह में लगाया जाता है तथा फरवरी माह में इसे उखाड़ लिया जाता है। इस
दौरान इसे दो या तीन हल्की सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। यदि शीत
ऋतु के दौरान 2-3 बारिशें निश्चत अंतराल पर पड़ जाएं तो अतिरिक्त
सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती तथा फसल भी अच्छी हो जाती है। वैसे
इस फसल को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती तथा यदि बिजाई
के समय भूमि में उचित नमी (उगाव के लिए) हो तथा पौधों के उगाव के बाद
बीच में (पौधे उगने के 35-40 दिन बाद) यदि एक बारिश/सिंचाई हो सके
तो इससे अच्छी फसल प्राप्त होने की अपेक्षा की जा सकती है।
भूमि का प्रकार –
एक
जड़दार फसल होने के कारण
अश्वगंधा की खेती उन मिट्टियों
में ज्यादा सफल हो सकती है जो
नर्म तथा पोली हों ताकि इनमें
फसल की जड़ें ज्यादा गहराई तक
जा सकें। इस प्रकार रेतीली दोमट
मिट्टियां तथा हल्की लाल
मिट्टियां इसकी खेती के लिए
उपयुक्त मानी जाती हैं प्राय: 5.6 से 8.5 पी.एच तक की मिट्टियों में इसकी
सही बढ़त होती है तथा इनसे उत्पादन भी काफी अच्छा मिलता है। यह भूमि
ऐसी होनी चाहिए जिसमें से जल निकास की समुचित व्यवस्था हो तथा पानी
भूमि में न रुकता हो। अश्वगंधा की खेती के संदर्भ में यह बात विशेष रूप से
देखी गई है कि यह भारी मश्दाओं की अपेक्षा हल्की मश्दाओं में ज्यादा उत्पादन
देती है। प्राय: देखागया है कि भारी मश्दाओं में पौधे तो काफी बड़े-बड़े हो
जाते हैं (हर्बेज बढ़ जाती है) परंतु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकश्त कम ही मिलता
है। इस प्रकार अश्वगंधा की खेती के लिए कम उपजाऊ, उचित जल निकास
वाली, रेतीली-दोमट अथवा हल्की लाल रंग की मिट्टी जिसमें पर्याप्त
जीवांश की मात्रा हो, उपयुक्त मानी जाती है।
अश्वगंधा की प्रमुख उन्नतशील किस्में –
अश्वगंधा की मुख्यतया
दो किस्में ज्यादा प्रचलन में हैं जिन्हें ज्यादा उत्पादन देने वाली किस्में माना
जाता है ये किस्में हैं- जवाहर असगंध-20, जवाहर असगंध-134 तथा डब्ल्यू.
एस.-90-100, वैसे वर्तमान में अधिकांशत: जवाहर असगंध-20 किस्म किसानों
में ज्यादा लोकप्रिय है।
अश्वगंधा की रासायनिक सरंचना –
अश्वगंधा में अनेकों प्रकार के
एल्केलाइड्स पाए जाते हैं जिनमें मुख्य हैं- विथानिन तथा सोमनीफेरेन। इनके
अतिरिक्त इनके पत्तों में पांच एलकेलाइड्स (कुल मात्रा 0.09 प्रतिशत) भी
पाए जाने की पुष्टि हुई है, हालांकि अभी उनकी सही पहचान नहीं हो पाई
है। इनके साथ-साथ विदानोलाइड्स, ग्लायकोसाइड्स, ग्लूकोज तथा कई
अमीनों एसिड्स भी इनमें पाए गए हैं। क्लोनोजेनिक एसिड, कन्डेन्स्ड टैनिन
तथा फ्लेवेलनायड्स की उपस्थिति भी इसमें देखी गई है।
अश्वगंधा का मुख्य उपयोगी भाग इसकी जड़ें होती हैं। भारतीय
परिस्थितियों में प्राप्त होने वाली अश्वगंधा की जड़ों में 0.13 से 0.31 प्रतिशत
तक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं (जबकि किन्हीं दूसरी परिस्थितियों में इनकी
मात्रा 4.3 प्रतिशत तक भी देखी गई है) इसकी जड़ों में से जिन 13
एल्केलाइड्स को पृथक किया जा सकता है, वे हैं- कोलीन, ट्रोपनोल,
सूडोट्रोपनोल, कुसोकाइज्रीन, 3-ट्रिगलोज़ाइट्रोपाना, आइसोपैलीटरीन, एनाफ्रीन,
एनाहाइग्रीन, विदासोमनाइन तथा कई अन्य स्ट्रायोयडल लैक्टोन्स। एल्केलाइड्स
के अतिरिक्त इसकी जड़ों में स्टॉर्च, रीड्यूसिंग सुगर्म, हैन्ट्रियाकोन्टेन,
ग्लाइकोसाइड्स, डुल्सिटॉल, विदानिसिल, एक अम्ल तथा एक उदासीन
कम्पाउन्ड भी पाया जाता है
बिजाई से पूर्व खेती की तैयारी –
यद्यपि वतर्मान में अश्वगंधा की
खेती कर रहे अधिकांश किसानों द्वारा इस फसल के संदर्भ में केाई विशेष
तैयारी नहीं की जाती तथा इसे एक ‘‘नॉनसीरियस’’ फसल के रूप में लिया
जाता है, परंतु व्यवसायिकता
तथा अधिकाधिक उत्पादन की
दृष्टि से यह आवश्यक होगा
यदि सभी कृषि क्रियाएं
व्यवस्थित रूप से की जाए।
इसके लिए सर्वप्रथम
जुलाई-अगस्त माह में एक बार
आड़ी-तिरछी जुताई करके
खेत तैयार कर लिया जाता
है। तदुपरांत प्रति एकड़ एक
से दो ट्राली गोबर खाद डालना फसल की अच्छी बढ़त के लिए उपयुक्त
रहता है। यद्यपि अश्वगंधा की फसल को खाद की अधिक मात्रा की
आवश्यकता नहीं पड़ती परंतु फिर भी 1 से 2 टन प्रति एकड़ तो खाद डालनी
ही चाहिए। हां यदि पूर्व में ली गई फसल में ज्यादा खाद डाला गया हो तो
इसके पूर्वावशेष (रैसीड्यूज़) से भी काम चलाया जा सकता है। खाद खेत में
मिला दिए जाने के उपरान्त खेत में पाटा चला दिया जाता है।
बिजाई की विधि –
अश्वगंधा की बिजाई दोनों प्रकार से की जा सकती है- (क) सीधी
खेत में बुआई तथा (ख) नर्सरी बनाकर पौधों को खेत में ट्रांसप्लांट करना। इन
दोनों विधियों के विवरण निम्नानुसार हैं-
1. सीधी खेत में बिजाई – सीधी खेत में बिजाई करने के विधि में
मुख्यतया दो प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं- (क) छिटकवां विधि तथा लाइन से
बिजाई। ज्यादातर किसान इनमें से छिटकवां विधि अपनाते हैं। क्योंकि
अश्वगंधा के बीज काफी हल्के होते हैं अत: इनमें पांच गुना बालू रेत मिला ली
जाती है। तदुपरांत खेत में हल्का हल चला करके अश्वगंधा बालू मिश्रित
बीजों को खेत में छिड़क दिया जाता है तथा ऊपर से पाटा दे दिया जाता है।
एक एकड़ के लिए 5 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होते हैं।
अश्वगंधा के पके सूखे फल अश्वगंधा के सूख्ूखे कच्चे फल
लाइन से बिजाई करने की दशा में गेहूं अथवा सोयाबीन की बिजाई
की तरह सीड ड्रिल, देशी हल अथवा दुफन से बिजाई की जाती है। दोनों में
से विधि चाहे जो भी अपनाएं परंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज जमीन
में ज्यादा गहरा (3 से 4 से.मी. से ज्यादा गहरा नहीं) न जाए। इस विधि से
बिजाई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे तथा पौधे से
पौधे की दूरी 4 से.मी. रखनी उपयुक्त रहती है।
2. नर्सरी बनाकर खेत में पौधे लगाना – इस विधि से बिजाई करने की
दशा में सर्वप्रथम रेज्ड नर्सरी बेड्स बनाए जाते हैं जिन्हें खाद आदि डालकर
अच्छी प्रकार तैयार किया जाताहै। तदुपरांत इन बेड्स में 4 कि.ग्रा. प्रति एकड़
की दर से अश्वगंधा का बीज डाला जाता है जिसे हल्की मिट्टी डाल करके
दबा दिया जाता है। लगभग 10 दिनों में इन बीजों का उगाव हो जाता है
तथा छ: सप्ताह के उपरांत जब ये पौधे लगभग 5-6 सें.मी. ऊंचे हो जाए तब
इन्हें बड़े खेत में ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है।
कौन सी विधि ज्यादा उपयुक्त है- सीधी बिजाई अथवा नर्सरी विधि?
यद्यपि नर्सरी में पौधे तैयार करके इनको खते में ट्रासं प्लाटं
करना कई मायनों में लाभकारी हो सकता है परंतु जहां तक उत्पादन तथा
जड़ों की गुणवत्ता का प्रश्न है तो सीधी बिजाई से प्राप्त उत्पादन ज्यादा
अच्छा होना पाया गया है। विभिन्न अनुसंधानों में यह देखा गया है कि
सीधी बिजाई करने पर मूसला जड़ की वृद्धि अच्छी होती है तथा बहुधा एक
शाखा वाली सीधी जड़ प्राप्त होती है। जबकि रोपण विधि से तैयार किए गए
पौधों में देखा गया है इनमें मूसला जड़ का विकास तो रुक जाता है जबकि
दूसरी सहायक जड़ों का विकास अधिक होता है। इस प्रकार के पौधों में
सहायक जड़ों की औसतन संख्या 8 तक पाई गई है। इसी प्रकार सीधी
बिजाई करने पर जड़ों की औसतन लंबाई 22 से.मी. तथा मोटाई 12 मि.मीतक
पाई गई है जबकि रोपण विधि से तैयार पौधेां में जड़ों की औसतन लंबाई
14 सें.मी. तथा मोटाई 8 मि.मी. तक पाई गई है। इसके अतिरिक्त यह भी
देखा गया है कि सीधी बिजाई करने पर जड़ों में रेशों की मात्रा कम आती
है तथा तोड़ने पर ये जड़े आसानी से टूट जाती हैं जबकि रोपण विधि से
तैयार पौधों की जड़ों में रेशा अधिक पाया जाता है तथा ये जड़ें आसानी से
टूट नहीं पाती हैं। इस प्रकार इन अनुसंधानों के परिणामों के आधार पर यह
निष्कर्ष निकाला जाता है कि अश्वगंधा की बिजाई हेतु रोपण (नर्सरी) विधि
की अपेक्षा सीधी बिजाई करना प्रत्येक दृष्टि से ज्यादा लाभकारी है। अत:
किसानों द्वारा यही विधि अपनाने की सलाह दी जाती हैं।
बिजाई से पूर्व बीजों का उपचार
अश्वगंधा के सदंर्भ में डाई बकै
अथवा सीड रॉटिंग बीमारियां काफी सामान्य हैं तथा इनसे उगते ही पौधे
झुलसने से लगते हैं। जिससे प्रारंभ में ही पौधों की संख्या काफी कम हो जाती
है। इस रोग के निवारण की दृष्टि से आवश्यक होगा यदि बीजों का उपयुक्त
उपचार किया जाए। इसके लिए बीजों का कैप्टॉन, थीरम अथवा डायथेन
एम-45 से 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उापचार करने से इन रोगों से
बचाव हो सकता है। जैविक विधियों के अंतर्गत बीज का गौमूत्र से उपचार किया
जाना उपयोगी रहता है। बायोवेद शोध संस्थान, इलाहाबाद ने अपने शोध
प्रयोगों के उपरान्त पाया कि ट्राइकोडरमा 5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज का शोधन
सबसे उपयुक्त है बायोनीमा 15 कि.ग्रा. प्रति एकड़ के प्रयोग जहां एक ओर
विभिन्न रोगों के नियन्त्रण में सहायक हैं वहीं जड़ों के विकास में भी सहायक
है से बीज उपचारित करने के भी काफी अच्छे परिणाम देखे गये हैं।
सीधी विधि विशेषतया छिटकवां विधि से
बिजाई करने की दशा में प्राय: पौधों का विरलीकरण करना आवश्यक हो
जाता है। यह विरलीकरण बिजाई के 25-30 दिन के बाद कर दिया जाना
चाहिए। यह विरलीकरण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि पौधे से पौधे की
दूरी 4 से.मी. तथा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. से ज्यादा न रहे।
खरपतवार नियत्रंण –
अन्य फसला ें की तरह अश्वगंधा की फसल
में भी खरपतवार आ सकते हैं जिनके
नियंत्रण हेतु हाथ से ही निंराई-गुड़ाई
की जानी चहिए। यह निंराई कम
से कम एक बार अवश्य की जानी
चाहिए तथा जब पौधे लगभग
40-50 दिन के हो जाएं तब खेत
की हाथ से निंराई कर दी जानी
चाहिए। पौधों के विरलीकरण तथा
खरपतवार नियंत्रण का कार्य साथ-साथ भी किया जा सकता है।
खाद की आवश्यकता –
अश्वगंधा की फसल को ज्यादा खाद की
आवश्यकता नहीं पड़ती तथा यदि इससे पूर्व में ली गई फसल में खाद का
काफी उपयोग किया गया हो तो उस फसल में प्रयुक्त खाद के बचाव से ही
अश्वगंधा की फसल ली जा सकती है। इस फसल को ज्यादा नाइट्रोजन की
आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि ज्यादा नाइट्रोजन देने से पौधे पर ‘‘हर्बेज’’ तो
काफी आ सकती है परंतु जड़ों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता। वैसे इस
फसल के लिए जो खाद की प्रति एकड़ अनुशंसित मात्रा है, वह है- 8 किग्रा.
नाइट्रोजन, 24 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 16 कि.ग्रा. पोटाश। इन अवयवों
की पूर्ति जैविक विधि से तैयार खादों से भी की जा सकती है।
फसल से संबंधित प्रमुख बीमारियां तथा रोग –
अश्वगंधा की फसल में मुख्यतया माहू-मोला का प्रकोप हो सकता है
जिसे मैटासिस्टोक्स की 1.50 मिली मात्रा एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव
करने से नियंत्रित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त होने वाले रोग अथवा
बीमारियाँं जिनमें जड़ सड़ने, पौध गलन तथा झुलसा रोग प्रमुख हैं (विशेषतया
जब मौसम में आर्दता तथा गर्मी अधिक हो) के नियंत्रण का सर्वाधिक उपयुक्त
उपचार है बीजों को उपचारित करके बिजाई करना जिसका विवरण पीछे दिया
गया है। इसके उपरांत भी जब पौधे बड़े हो जाएं (20-25) दिन के तो 15-15
दिन के अंतराल पर गौमूत्र अथवा डयथेन एम-45 का छिड़काव किया जाना
फसल को अधिकांश रोगों से मुक्त रखेगा।
अश्वगंधा की फसल पर कीट व्याधी का कोई विशेष असर नहीं होता
है। कभी-कभी इस फसल में माहू कीट तथा पौध झुलसा व पर्ण झुलसा लग
सकता है जिसके नियंत्रण हेतु क्रमश: मैलाथियान या मोनोक्रोटोफास एवं
बीज उपचार के अलावा डायथेन एम-45, 3 ग्राम प्रति लीटर पानी घोल में
दोयम दर्जेे की जड़ अच्छी गुण्ुणवत्ता वाली जड़
अश्वगंधा की पूण्ूर्ण तिकसित जड़
तैयार कर बुआई के 30 दिन के उपरान्त छिड़काव किया जा सकता है।
आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन के अन्दर पुन: छिड़काव किया जाना उपयोगी
होता है।
सिंचाई की व्यवस्था –
अश्वगंधा काफी कम सिंचाई में अच्छी उपज
देने वाली फसल है। एक बार अच्छी प्रकार उग जाने (बिजाई के समय भूमि
में पर्याप्त नमी होनी चाहिए) के उपरांत बाद में इसे मात्र दो सिंचाईयों की
आवश्यकता होती है- एक उगने के 30-35 दिन के बाद तथा दूसरी उससे
60-70 दिन के उपरांत। इससे अधिक सिंचाई की आवश्यकता इस फसल को
नहीं होती।
फसल का पकना तथा जडा़ें की खुदाई (हारवेस्टिगं) –
बिजाई के
लगभग 5-5) माह के उपरांत (प्राय: फरवरी माह की 15 तारीख के करीब)
जब अश्वगंधा की पत्तियांँ पीली पड़ने लगे तथा इनके ऊपर आए फल (बेरिया)
पकने लगे अथवा फलों के ऊपर की परत सूखने लगे तो अश्वगंधा के पौधों को
उखाड़ लिया जाना चाहिए। यदि सिंचाई की व्यवस्था हो तो पौधों को उखाड़ने
से पूर्व खेत में हल्की सिंचाई दी जानी
चाहिए। हालांकि यदि सिंचाई की
व्यवस्था हो तथा फसल को निरंतर
पानी दिया जाता रहे तो पौधे हरे ही
रहेंगे परंतु फसल को अधिक समय
तक खेत में लगा नहीं रहने दिया
जाना चाहिए क्योंकि इससे जड़ों में
रेशे की मात्रा बढ़ेगी जोकि फसल की
गुणवत्ता को प्रभावित करेगी। उखाड़ने
के तत्काल बाद जड़ों को पौधों (तने)
से अलग कर दिया जाना चाहिए तथा
इनके साथ लगी रेत मिट्टी को साफ
कर दिया जाना चाहिए। काटने के
उपरांत इन्हें लगभग 10 दिनों तक
छाया वाले स्थान पर सुखाया जाता है तथा जब ये जड़ें तोड़ने पर ‘‘खट’’ की
आवाज से टूटने लगें तो समझ लिया जाना चाहिए कि ये बिक्री के लिए तैयार
हैं।
जडा़ें की ग्रेडिंग –
सुखाने के बाद यूं तो वैसै भी जडें बेची जा सकती
हैं परंतु उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त करने की दृष्टि से यह उपयुक्त होता है
कि जड़ों को ग्रेडिंग करके बेचा जाए। इस दृष्टि से जड़ों को निम्नानुसार 3-4
ग्रेड़ों में श्रेणीक त किया जा सकता है-
- ‘अ’ ग्रेड़ – इस श्रेणी में म ख्यतया जड का ऊपर वाला भाग
आता है जो प्राय: चमकीला तथा हल्के छिलके वाला होता है। जड़ का यह
भाग अंदर से ठोस तथा सफेद होता है तथा इसमें स्टार्च अधिक तथा
एल्केलाइड्स कम पाए जाते हैं। इस भाग की औसत लंबाई 5 से 7 सेमी. तथा
इसका व्यास 10 से 12 मि.मी. रहता है। - ‘ब’ ग्रेड़ – इस श्रेणी में जड का बीच वाला हिस्सा आता है।
जड़ के इस भाग की औसतन लंबाई 3.5 से.मी. तथा इसका व्यास 5 से 7 मिमी.
रहता है। इस भाग में स्टार्च कम होती है जबकि इसमें एल्केलाइड्स
ज्यादा होते हैं। - ‘स’ ग्रेड़ – जड़ के निचले आखिरी किनारे का श्रेणीकरण ‘स’ गे्रड
में किया जाता है।
इसके अतिरिक्त पतले रेशे भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस
भाग में एल्केलाइड्स की मात्रा काफी अधिक होती हैं। तथा ‘‘एक्सट्रेक्स’’
निर्माण की दृष्टि से जड़ का यह भाग सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
इसके अतिरिक्त अधिक मोटी, ज्यादा काष्ठीय, कटी-फटी तथा
खोखली जड़ों तथा उनके टुकड़ों को ‘द’ श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार
श्रेणीकरण कर लेने से फसल का अच्छा मूल्य मिल जाता है।