गर्भावस्था में निम्नलिखित क्रियाओं के
कारण पोषण आवश्यकताएँ बढ़ जाती है।
- गर्भ में भ्रूण के वृद्धि और विकास के लिये-
भ्रूण अपनी वृद्धि और विकास के लिये सभी पोषक तत्वों को माँ से ग्रहण करता है।
अत: माँ और भ्रूण दोनों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पोषक आवश्यकताएँ बढ़
जाती है। इस समय यदि माँ का आहार अपर्याप्त होगा तो वह माँ व भू्रण दोनों के
लिये उचित नहीं होगा। - गर्भाशय, गर्भनाल, प्लेसेण्टा आदि के विकास के लिये-
गर्भाशय का आकार इस समय बढ़ जाता है। साथ-साथ दूध स्त्राव के लिए स्तनों
का आकार भी बढ़ जाता है, साथ ही साथ प्लेसेण्टा तथा गर्भनाल का भी विकास
होता है। भार बढ़ने से भी उसकी पोषक आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती है। - प्रसवकाल तथा स्तनपान काल के लिये पौष्टिक आवश्यकताएँ-
गर्भावस्था के समय जो पोषक तत्व संचित हो जाते हैं। वे ही प्रसवकाल तथा
स्तनपान काल में उपयोग में आते हैं। यदि ये पोषक तत्व अतिरिक्त मात्रा में नहीं
होंगे तो प्रसव के समय स्त्री को कठिनार्इ होती है तथा प्रसव के पश्चात् पर्याप्त मात्रा में दूध का स्त्राव नहीं हो पाता।
ii. गर्भावस्था में पौष्टिक आवश्यकताएँ-
इस अवस्था में लगभग सभी पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ बढ़ जाती है-
- ऊर्जा-
भ्रूण की वृद्धि के लिये, माँ के शरीर में वसा संचय के लिये तथा उच्च
चयापचय दर के लिये इस अवस्था में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अत:
सामन्य स्थिति से 300 कैलोरी ऊर्जा अधिक देनी चाहिये। - प्रोटीन-
माँ व भ्रूण के नये ऊतकों के निर्माण के लिये प्रोटीन की आवश्यकता बढ़
जाती है। अत: इस अवस्था में 15 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन अधिक देना आवश्यक है। - लौह तत्व-
भ्रूण की रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन के निर्माण के लिये और माँ के
रक्त में हीमोग्लाबिन का स्तर सामान्य बनाये रखने के लिये, भू्रण के यकृत में लौह
तत्व के संग्रहण के लिये एवं माँ तथा शिशु दोनों को रक्तहीनता से बचाने के लिये
लौह तत्व की आवश्यकता होती है। इस समय 38 मि.ग्रा. लौह तत्व प्रतिदिन देना
आवश्यक है। - कैल्शियम एवं फॉस्फोरस-
भ्रूण की अस्थियों एवं दाँतों के निर्माण के लिये माँ की अस्थियों को सामान्य
अवस्था में बनाये रखने के लिये इस समय अधिक कैल्शियम की आवश्यकता होती
है। इस अवस्था में कैल्शियम व फॉस्फोरस कम होने से माँ को आस्टोमलेशिया तथा
भू्रण में अस्थि विकृति की संभावना रहती है। अत: 1000 मि.ग्रा. कैल्शिय प्रतिदिन
देना आवश्यक होता है। - आयोडीन और जिंक-
ये दोनों ही Trace Elements हैं, परन्तु गर्भावस्था के दौरान इनका विशेष
महत्व है। इसकी कमी होने पर नवजात शिशु मानसिक रूप से अपंग या शारीरिक
रूप से दुर्बल हो सकता है। - विटामीन ‘बी’-
विटामीन बी समूह के विटामीन विशेष तौर पर थायमिन राइबोफ्लेविन एवं
नयसिन की कमी होने पर जी मिचलाना, उल्टी होना, माँ को कब्ज होना आदि
लक्षण देखे जाते हैं। फोलिक अम्ल की कमी से रक्तहीनता हो सकती है। - विटामीन ‘डी’-
कैल्शियम एवं फॉस्फोरस का शरीर में अवशोषण तभी सम्भव है जब कि स्त्री
के आहार में विटामीन डी की मात्रा पर्याप्त हो। इसलिये दूध व दूध से बने पदार्थ
तथा हरी सब्जियाँ आहार में सम्मिलित होना आवश्यक है। - विटामिन ‘ए’-
माता के दूध में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में स्त्रावित होता है। इसलिये इस
समय विटामिन ए की माँग बढ़ जाती है। इसकी कमी होने पर बच्चे में नेत्र
संबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अत: विटामिन ए युक्त भोज्य पदार्थ पर्यापत
मात्रा में देना चाहिये। - विटामिन ‘बी’ समूह –
इसकी आवश्यकता भी ऊर्जा के अनुपात मे बढ़ जाती है। ये विटामिन पाचन
के लिये आवश्यक है। - विटामिन ‘सी’-
स्तनपान काल में विटामिन सी की मात्रा की आवश्यकता सामान्य से दुगुनी
हो जाती है। यह 80 मि.ग्रा. प्रतिदिन हो जाती है। इसके लिये विटामिन सी युक्त
भोज्य पदार्थ जैसे- ऑवला, अमरूद, संतरा पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये।
iii. गर्भावस्था के दौरान होने वाली समस्याएँ-
इस दौरान गर्भवती स्त्री को स्वास्थ्य सम्बन्धी निम्न समस्याओं से गुजरना
पड़ता है-
- जी मिचलाना व वमन होना,
- कुष्ठबद्धता,
- रक्तहीनता,
- सीने में जलन।
iv. गर्भावस्था के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें-
- गर्भावस्था के दौरान सुबह होने वाली परेशानियाँ जैसे-
जी का मिचलाना, उल्टी आदि को दूर करने के लिए गर्भवती स्त्री को खाली
चाय न देकर चाय के साथ कार्बोज युक्त पदार्थ जैसे बिस्किट आदि देना चाहिए। - जलन तथा भारीपन दूर करने के लिये वसायुक्त तथा मिर्च-
मसाले युक्त भोज्य पदार्थ नहीं देना चहिए। - कब्ज को रोकने के लिए रेशेदार पदार्थ (Fiberous Food) देना चाहिए
तथा तरल पदार्थों का उपयोग करना चाहिए।
2. स्तनपान अवस्था –
यह समय गर्भावस्था के बाद का समय है। सामान्यत: स्तनपान कराने वाली स्त्री एक
दिन में औसतन 800 से 850 मि.ली. दूध का स्त्राव करती है। यह मात्रा उसे दिये जाने वाले
पोषक तत्वों पर निर्भर करती है। इसीलिये इस अवस्था में पोषक तत्वों की माँग गर्भावस्था
की अपेक्षा अधिक हो जाती है। क्योंकि 6 माह तक शिशु केवल माँ के दूध पर ही निर्भर
रहता है।
i. धात्री माँ के लिये पोषक आवश्यकताएँ – शुरू के 6 माह में दूध की मात्रा अधिक बनती है। धीरे-धीरे यह मात्रा कम
होने लगती है। इसीलिये शुरू के माह में पोषक तत्वों की आवश्यकता अधिक होती
है। इस अवस्था में निम्न पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है-
- ऊर्जा-
पहले 6 माह में दुग्ध स्त्राव के लिये अतिरिक्त ऊर्जा 550 और बाद के 6 माह में 400
किलो कैलोरी अतिरिक्त देना आवश्यक है। तभी शिशु के लिये दूध की मात्रा पर्याप्त
हो सकेगी। इसके लिये दूध, घी, गिरीदार फल देना चाहिये। - प्रोटीन-
शिशु को मिलने वाली प्रोटीन माँ के दूध पर निर्भर करती है। इसलिये माता
को इस समय 25 ग्राम प्रोटीन की अतिरिक्त आवश्यकता होती है। इसके लिये माँ
को उत्तम प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये। जैसे- अंडा,
दूध, दालें, सोयाबीन, सूखे मेवे आदि। - कैल्शियम एवं फॉस्फोरस-
कैल्शियम की कमी होने पर दूध में कैल्शियम की कमी नहीं होती, परन्तु माँ
की अस्थियों और दाँतो का कैल्शियम दूध में स्त्रावित होने लगता है। जिससे माँ की
अस्थियां और दाँत कमजोर हो जाते हैं। अत: दूध (आधा किला प्रतिदिन), दूध से
बने भोज्य पदार्थ देने चाहिये। - लौह तत्व-
माता के आहार में अधिक आयरन देने पर शिशु को अतिरिक्त लोहा नहीं
मिलता, परन्तु आयरन की मात्रा कम होने से माता को एनीमिया हो सकता है।
इसलिये पर्याप्त लौह तत्व देना चाहिये। इसके लिये हरे पत्तेदार सब्जियाँ, अण्डा गुड़
आदि देना चाहिये। - विटामिन ‘ए’-
माता के दूध में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में स्त्रावित होता है। इसलिये इस
समय विटामिन ए की माँग बढ़ जाती है। इसकी कमी होने पर बच्चे में नेत्र
संबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अत: विटामिन ए युक्त भोज्य पदार्थ पर्यापत
मात्रा में देना चाहिये। - विटामिन ‘बी’ समूह –
इसकी आवश्यकता भी ऊर्जा के अनुपात मे बढ़ जाती है। ये विटामिन पाचन
के लिये आवश्यक है। - विटामिन ‘सी’-
स्तनपान काल में विटामिन सी की मात्रा की आवश्यकता सामान्य से दुगुनी
हो जाती है। यह 80 मि.ग्रा. प्रतिदिन हो जाती है। इसके लिये विटामिन सी युक्त
भोज्य पदार्थ जैसे- ऑवला, अमरूद, संतरा पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये।
ii. स्तनपान काल ध्यान रखने योग्य बातें-
- इस समय स्त्री को सभी प्रकार के भोज्य पदाथोर्ं का उपयोग कर सकते हैं,
किन्तु यदि किसी खास भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से शिशु को परेशानी
होती है, तो उसे नहीं लेना चाहिए। - नशीले पदाथोर्ं का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह दूध में स्त्रावित
होकर शिशु के लिए नुकसानदायक हो सकता है। - दूध कि उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए तरल पदार्थ तथा जल का अधिक
उपयोग करना चाहिए। - माँ को संक्रामक बीमारी जैसे तपेदिक होने पर स्तनपान नहीं कराना चाहिए।
- जब माँ दूध पिलाना बंद कर दे तो आहार की मात्रा कम देना चाहिए अन्यथा
वजन बढ़ने की सम्भावना रहती है।
3. शैशवावस्था –
जन्म से एक वर्ष तक का कार्यकाल शैशवावस्था कहलाता है। यह अवस्था तीव वृद्धि
और विकास की अवस्था है। यदि इस उम्र में शिशुओं को पर्याप्त पोषक तत्व न दिये जाये
तो वे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।
शिशुअुओंं की पोषण आवश्यकताएँ
शिशुओं को निम्न पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ अधिक होती है-
- ऊर्जा-
इस अवस्था में वृद्धि दर तीव्र होती है। इस आयु में ऊर्जा की आवश्यकता
सबसे अधिक होती है। शिशु को एक कठोर परिश्रम करने वाले व्यस्क पुरूष की अपेक्षा प्रति कि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार दुगुनी कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता
होती है। - प्रोटीन-
शिशु के के शरीर के ऊतकों का विकास तीव्र गति से हाने के कारण प्रोटीन
की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। - खनिज लवण-
हड्डियों का विकास तीव्र गति से हाने के कारण कैल्शियम की आवश्यकता
बढ़ जाती है। रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लाबिन के निर्माण के लिये लौह तत्व की
मात्रा भी अधिक आवश्यक होती है। - विटामिन-
आवश्यक ऊर्जा के अनुसार ही राहबोफ्लेबिन तथा नायसिन की मात्रा बढ़
जाती है। शरीर में निर्माण कार्य तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये विटामिन
‘ए’ एवं ‘सी’ पर्याप्त मात्रा में देना आवश्यकत होता है। - जल-
6 माह तक शिशु को अलग से जल देने की आवश्यकता नहीं होती है। यह
आवश्यकता माँ के दूध से ही पूरी हो जाती है। इसके पश्चात् जल को उबालकर
ठंडा करके देना चाहिये।
i. शिशुओं के लिए आहार आयोजन-
शिशुओं को दिया जाने वाला प्रथम आहार माँ का दूध है। जो कि बालक के
लिये अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि –
- कोलोस्ट्रम की प्राप्ति-
शिशु को जन्म देने के पश्चात् माँ के स्तनों में तीन दिन तक साफ पीले रंग
द्रव निकलता है। जिसे नवदुग्ध या कोलस्ट्रम कहते हैं। यह बालक को रोग
प्रतिरोधक शक्ति प्रदान करता है। - वृद्धि एवं विकास में सहायक-
माँ के दूध में पायी जाने वाली लेक्टाएल्ब्यूमिन तथा ग्लोब्यूलिन में प्रोटीन
पायी जाती है, जो कि आसानी से पच कर वृद्धि एवं विकास में सहायक होती है। - स्वच्छ दूध की प्राप्ति-
इसे शिशु सीधे स्तनों से प्राप्त करता है। इसलिये यह स्वच्छ रहता है। - उचित तापमान-
माँ के दूध का उचित तापमान रहता है, न वह शिशुओं के लिये ठंडा रहता
है और न ही गर्म। - निसंक्रामक-
इस दूध से संक्रमण की संभावना नहीं रहती, क्योंकि व सीधे माँ से प्राप्त
करता है। - भावनात्मक संबंध-
माँ का दूध बच्चे और माँ में स्नेह संबंध विकसित करने में सहायक होता है। - समय शक्ति और धन की बचत-
चूंकि बालक सीधे माँ के स्तनों से दूध को प्राप्त कर लेता है, जिससे समय
शक्ति और धन तीनों की बचत हो जाती है। - पाचक-
माँ की दूध में लेक्टोस नामक शर्करा पायी जाती है, जो कि आसानी से पच
जाती है एवं माँ का दूध पतला होने के कारण भी आसानी से पच जाता है। - विटामिन सी की प्राप्ति-
माँ के दूध में गर्म होने की क्रिया न होने के कारण जो भी विटामिन सी
उपस्थित होता है। नष्ट नहीं हो पाता। - विटामिन ‘ए’ की प्राप्ति-
शुरू के कोलेस्ट्रम में विटामिन ए की मात्रा अधिक पायी जाती है। - परिवार नियोजन में सहायक-
डॉक्टर की राय है कि, जब तक माँ स्तनपान कराती रहती है। शीघ्र
गर्भधारण की सम्भावना नहीं रहती।
ii. माँसपेशियों के संकुचन में सहायक-
स्तनपान कराने से गर्भाशय की माँसपेशियाँ जल्दी संकुचित होती है, जिससे
वह जल्दी पूर्ववत आकार में पहुँच जाता है।
इसकी संरचना माँ के दूध के समान होती है। शिशु इसे आसानी से पचा
सकता है।
iii. पूरक आहार – 6 माह के पश्चात् बालक के लिये माँ का दूध पर्याप्त नहीं रहता। अत: माँ
के दूध के साथ ही साथ दिया जाने वाला अन्य आहार पूरक आहार कहलाता है
और पूरक आहार देने की क्रिया स्तन्यमोचन (Weaning) कहलाती है।
उदाहरण – गाय का दूध, भसै का दूध, फल, उबली सब्जियाँ व सबे फल आदि।
बच्चों को दिये जाने वाले पूरक आहार को तीन वगोर्ं में वर्गीकृत किया जा सकता
है-
- तरल पूरक आहार –
वह आहार जो पूर्णत: ठोस होता है। जैसे- फलों का रस, दाल का पानी,
नारियल पानी, दूध आदि। - अर्द्धतरल आहार –
वह आहार जो पूर्णत: ठोस होता है और नहीं पूर्णत: तरल, अर्द्धतरल आहार
कहलाता है जैसे- खिचड़ी, दलिया, कस्टर्ड, मसले फल, उबली सब्जियाँ, खीर
आदि। - ठोस आहार –
ठोस अवस्था में प्राप्त आहार ठोस आहार कहलाता है। एक वर्ष की अवस्था
में देना शुरू कर दिया जाता है। जैसे- रोटी, चावल, बिस्किट, ब्रेड आदि।
4. बाल्यावस्था –
2 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। 2-5 वर्ष की अवस्था
प्रारंभिक बाल्यावस्था तथा 6 से 12 वर्ष की अवस्था उत्तर बाल्यावस्था कहलाती है। 6-12
वर्ष के बच्चों के लिये स्कूलगामी शब्द का प्रयोग किया गया है।
स्कूलगामी बच्चों के लिये पोषण आवश्यकताएँ
इस अवस्था में निम्नलिखित पोषक तत्व आवश्यक होते हैं-
i. ऊर्जा-
इस अवस्था में वृद्धि दर तेज होने से अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
साथ ही साथ इस उम्र में बच्चों की शारीरिक क्रियाशीलता बढ़ने से ऊर्जा की
आवश्यकता बढ़ जाती है। इस अवस्था में लड़कों के मॉसपेशीय ऊतक अधिक
सक्रिय होने से ऊर्जा की आवश्यकता लड़कियों की अपेक्षा अधिक होती है।
- प्रोटीन-
यह निरंतर वृद्धि की अवस्था होने के कारण प्रोटीन की आवश्यकता बढ़
जाती है। - लोहा-
शारीरिक वृद्धि के साथ ही साथ रक्त कोशिकाओं की संख्या भी बढ़ने लगती
है, जिससे अधिक लौह तत्व की आवश्यकता होती है। - कैल्शियम-
स्कूलगामी बच्चों की अस्थियों की मजबूती के लिये तथा स्थायी दाँतो के
लिये अधिक कैल्शियम की आवश्यकता होती है। इसलिये भरपूर कैल्शियम मिलना
आवश्यक है। - सोडियम एवं पोटेशियम-
अधिक क्रियाऐं करने से पसीना अधिक आता है। जिससे सोडियम और
पोटेशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। अत: तरल पदार्थ देने चाहिये। - विटामिन-
इस समय थायसिन, नायसिन-राइबोफ्लेविन, विटामिन सी, फोलिक एसिड
तथा विटामिन ए की दैनिक मात्रा बढ़ जाती है।
5. किशोरावस्था –
13 से 18 वर्ष की अवस्था किशोरावस्था कहलाती है। इस अवस्था में शारीरिक
मानसिक तथा भावनात्मक परिवर्तन होते हैं। इसलिये पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जाती
है। इसलिए भारतीय अनुसंधान परिषद द्वारा किशोर-बालिकाओं के लिये निम्नलिखित
पोषक तत्व आवश्यक है-
- ऊर्जा-
किशोर बालक शारीरिक एवं मानसिक दोनों दृष्टि से अधिक क्रियाशील
होता है तथा शारीरिक वृद्धि भी होती है और चयापचय की गति भी तीव्र होती है।
जिसके कारण अधिक ऊर्जा आवश्यक होती है - प्रोटीन-
शारीरिक वृद्धि दर के अनुसार लड़कों में प्रोटीन की आवश्यकता लड़कियों
की अपेक्षा अधिक होती है। अत: इस अवस्था में उत्तम कोटि के प्रोटीन देना चाहिए। - लौहा-
रक्त की मात्रा में वृद्धि होने के कारण लौह तत्व की आवश्यकता बढ़ जाती
है। लड़कियों में मासिक धर्म प्रतिमाह होने के कारण अधिक मात्रा में लौह तत्व
आवश्यक होता है। - कैल्शियम-
शरीर की आन्तरिक क्रियाओं के लिये, अस्थियों में विकास, दाँतो की मजबूती
के लिए कैल्शियम की अधिक मात्रा आवश्यक होती है। ब्ं के साथ-साथ
फॉस्फोरस की आवश्यकता स्वत: ही पूरी हो जाती है। - आयोडीन-
शारीरिक और मानसिक विकास के लिये किशोरों को आयोडीन की मात्रा
पर्याप्त मिलना आवश्यक है। इसकी कमी होने पर गलगंड नामक रोग हो सकता है। - विटामिन-
किशोरावस्था में कैलोरी की माँग बढ़ने के साथ-साथ विटामिन ‘बी’ समूह के
विटामिन की आवश्यकता बढ़ जाती है।
6. वृद्धावस्था –
यह जीवन के सोपान की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक तथा
मानसिक क्रियाशीलता कम हो जाती है। उसकी माँसपेशियाँ कमजोर हो जाती है। अत:
पोषक तत्वों की उतनी आवश्यकता नहीं होती। इस अवस्था में निम्नलिखित पोषक तत्व की
आवश्यकता होती है-
- ऊर्जा-
इस अवस्था में बी.एम.आर. कम होने के कारण तथा क्रियाशीलता कम होने
से ऊर्जा की आवश्यकता कम हो जाती है। इस ऊर्जा की पूर्ति कार्बोज युक्त भोज्य
पदाथोर्ं द्वारा की जानी चाहिए। इस समय 30: ऊर्जा कम कर देनी चाहिए। - प्रोटीन-
यह अवस्था विश्राम की अवस्था होती है। अत: न तो शारीरिक वृद्धि ही होती
है और रहीं टूट-फूट की मरम्मत होती है। अत: 1 ग्राम से कम प्रोटीन प्रति भार के
लिये पर्याप्त रहती है। किन्तु सुपाच्य प्रोटीन का प्रयोग करना चाहिए। - कैल्शियम-
इसकी आवश्यकता वयस्कों के समान ही होती है। कमी होने पर अस्थियाँ
कोमल और भंगुर होने लगती है। इसकी पूर्ति के लिये दूध सर्वोत्तम साधन है। - लौहा-
रक्तहीनता से बचने के लिये आयरन भी व्यस्कों के समान ही देना चाहिए। - विटामिन-
इस समय पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। जिससे विटामिन ‘बी’ समूह के
विटामिन पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये
विटामिन ‘सी’ की मात्रा भी आवश्यक होती है।