हुए? इसका स्पष्ट उल्लेख किसी भी ग्रंथ में नहीं है। सूरसारावली और साहित्य लहरी के
एक एक पद के आधार पर विद्वानों ने सूर की जन्मतिथि निश्चित करने का प्रयत्न किया
है। ‘‘सूरसारावली’ का पद है – गुरू परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन।
शिवविधान तप कियो बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन।।’’ इस पद के आधार पर समस्त
विद्वान सूर सारावली की रचना के समय सूरदास की आयु 67 वर्ष निश्चित करते हैं।
साहित्य लहरी के पद- मुनि मुनि रसन के रस लेख। श्री मुंशीराम शर्मा इस पद
के आधार पर साहित्य लहरी का रचनाकाल संवत् 1627 मानते है। सूर सारावली के
समय उनकी आयु 67 वर्ष मानी जाये तो सूर का जन्म विक्रम संवत् 1540 के आस
पास माना जाना चाहिए। मिश्र बंधुओं ने ही सबसे पहले इस तिथि की ओर ध्यान दिलाया
था।
बाह्य सााक्ष्य की दृष्टि से विचार किया जाये तो सूरदास का जन्म संवत् 1535 के
आसपास माना जा सकता है। पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार सूरदास वल्लभाचार्य से
आयु में 10 दिन छोटे थे। इसका सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण निजवार्ता है। श्री वल्लभाचार्य जी
की जन्म तिथि संवत् 1535 वैशाख कृष्ण 15 रविवार है। इस आधार पर सूर की
जनमतिथि संवत् 1535 वैशाख शुक्ल 5 को ठहरती है।
इन तथ्यों के आधार पर सूरदास की जन्म तिथि संवत् 1535 मानी जा सकती है।
सूरदास की मृत्यु के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि संवत् 1620 उनके
स्वर्गवास की तिथि हो सकती है। श्री मुंशीराम शर्मा एवं द्वारिकाप्रसाद मिश्र के विभिन्न
तर्को, सूर और अकबर की भेंट की तिथि आदि के आधार पर सूर का संवत् 1628 तक
जीवित रहना सिद्ध होता है। इस आधार पर कुछ विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1640 में
गोवर्धन के निकट पारसोली गा्रम में मानते है।
कुछ विद्वान सूरदास का जन्म मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक
ग्राम को मानते है। पर अधिकांश विद्वान चौरासी वैष्णव केी वार्ता जो सर्वाधिक प्रामाणिक
ग्रंथ है, के आधार पर दिलली के पास स्थित सीही नामक ग्राम को मानते हैं। सूरदास
जनमान्ध थे अथवा बाद में अन्धे हुए , इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। वार्ता
साहित्य में सूरदास को केवल जन्म से अन्धे ही नहीे अपितु आँखों में गड्डे तक नही वाला
बताया है। इसके अतिरिक्त सूरदास के समकालीन कवि श्रीनाथ भट्ट ने संस्कृत मणिबाला
ग्रंथ में सूर को जनमान्ध कहा है – जन्मान्धों सूरदासों भूत। इनके अतिरिक्त हरिराय एवं
प्राणनाथ कवि ने भी सूर को जन्मान्ध बताया है।
वल्लभाचार्य ने सूर को पुष्टि मार्ग में दीक्षित किया और कृष्णलीला से अवगत कराया। उनके पदों का संकलन सूर सागर के नाम से जाना जाता है। वल्लभाचार्य के
निधन के पश्चात गोस्वामी विट्ठल नाथ पुष्टि संप्रदाय के प्रधान आचार्य बने। संप्रदाय के
सर्वश्रेष्ठ कवियों को लेकर उन्होंने संवत् 1602 में अष्टछाप की स्थापना की ।
इन आठ
भक्त कवियों में सूरदास का स्थान ही सबसे उँचा था। अष्टछाप में चार आचार्य वल्लभाचार्य
के और चार विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। इनके नाम है-
- सूरदास
- कुम्भनदास
- कृष्णदास
- परमानंद दास
- गोविन्द स्वामी
- नंददास
- छीतस्वामी
- चतुभुर्जदास ।
सूरदास की रचनाएं
सूरदास द्वारा लिखित कृतियाँ मानी जाती हैं –
- सूर सारावली
- साहित्य
लहरी - सूर सागर
- भागवत भाषा
- दशम् स्कन्ध भाषा
- सूरसागर सार
- सूर
रामायण - मान लीला
- नाग लीला
- दान लीला
- भंवर लीला
- सूर दशक
- सूर साठी
- सूर पच्चीसी
- सेवाफल
- ब्याहलो
- प्राणप्यारी
- दृष्टि कूट
के पद - सूर के विनय आदि के पद
- नल दमयंती
- हरिवंश टीका
- राम
जन्म - एकादशी महात्म्य।
प्रामाणिक माने हैं। ये तीन प्रसिद्ध हैं – 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3.
सूरसागर।
1. सूर सारावली –
सूर सारावली नाम से ऐसा लगता है मानो यह सूर सागर की
भूमिका, सारांश या अन्य कुछ है। ग्रंथ के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यह रचना ऐसी
न होकर वल्लभाचार्य के दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धातों का लौकिक रूप है, जो एक वृहत्
होली गान के रूप में प्रकट किया गया है। सूर सारावली में विषय की दृष्टि से कृष्ण के
कुरूक्षेत्र से लौटने के बाद के समय से जुडे संयोग लीला, वसंत हिंडोला और होली आदि
प्रसंग अभिव्यक्त हुए है।
2. साहित्य लहरी –
साहित्य लहरी सूरदास की दूसरी प्रमुख रचना है। इसमें कुल 118
पद हैं। साहित्य लहरी का विषय सूर सागर से कुछ भिन्न एवं तारतम्यविहीन दिखाई देता
है। इसके पदों में रस, अलंकार, निरूपण एवं नायिका भेद तो है ही, साथ ही कुछ पदों में
कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन भी है। साहित्य लहरी में अनेक पद दृष्टिकूट पद है,
जिनमें गुह्य बातों का दृष्टिकूटों के रूप में वर्णन किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाओं
के साथ ही नायिकाओं के अनेक भेद के साथ राधा का वर्णन भी है तो अनेक प्रकार के
अलंकारों जैसे -दृष्टांत , परिकर, निदर्शना, विनोक्ति, समासोक्ति , व्यतिरेक का भी उल्लेख
है।
3. सूरसागर –
सूरदास की काव्य यात्रा का यह सर्वोत्कृष्ट दिग्दर्शन है। ऐसा माना जाता
है कि इसमें सवा लाख पद थे, किन्तु वर्तमान में प्राप्त और प्रकाशित सूरसागर में लगभग
चार से पाँच हजार पद संकलित है। सूरसागर की रचना का मूल आधार श्रीमद्भागवत है।
इसमें सूरदास ने श्रीमद्भागवत् का उतना ही आधार ग्रहण किया है, जितना कि कृष्ण की
ब्रज लीलाओं की रूपरेखाओं के निर्माण के लिए आवश्यक था। सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं
है। यह तो प्रसंगानुसार कृष्ण लीला से संबंधित उनके प्रेममय स्वरूप को साकार करने वाले
पदों का संग्रह मात्र है। सूरसागर की कथा वस्तु बारह स्कन्धों में विभक्त है। इनमें दशम्
स्कन्ध में ही कृष्ण की लीलाओं का अत्यंत विस्तार से वर्णन है। सूरसागर में आये पदों को
विषय के अनुसार इन वर्गों में रखा जा सकता है-
- कृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित पद
- कृष्ण कीद प्रेम और मान लीलाओं से संबंधित पद
- दान लीला के पद
- मान लीला के पद और भ्रमर गीत
- विनय, वैराग्य, सत्संग एवं गुरू महिमा से संबंधित पद
- श्रीमद्भागवत के अनुसार रखे गये पद