किस्सागोई प्राचीन परम्परा
विष्व रंगमंच दिवस (27 मार्च) पर दीपक दुआ हमें एक ऐसी नाट्य षैली के बारे में बता रहे हैं, जिसमें मंच पर कहानियां सुनाई और दिखाई जाती हैं।
थिएटर यानी रंगमंच मूलतः कहानियां कहने का ही मंच है। जहां पर कलाकार खुद को विभिन्न कहानियों के किरदारों में डूबकर अपने अभिनय से मंचन करते हैं। रंगमंच भी अपने भीतर कई तरह की विधाएं समेटे हुए है। इन्हीं में से एक है किसी अकेले कलाकार द्वारा मंच पर कहानियों को भावों और भंगिमाओं द्वारा सुनाना या दिखाना। आम भाशा में इसे किस्सागोई कह सकते हैं। किंतु देखा जाए तो यह किस्सागोई की प्रचलित परंपरा से भी अलग है। क्या है यह और कैसे होता है, कहानियों का मंचन। आइए जानते हैं दिल्ली के राश्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक, प्रसिद्ध अभिनेता-निर्देषक राकेष चतुर्वेदी से जो अधिकतर सआदत हसन मंटो की कहानियों को रंगमंच पर सुनाते हैं। पिछले वर्श प्रदर्षित अक्षय कुमार की फिल्म ‘केसरी’ में मुल्ला सैदुल्लाह के किरदार से काफी चर्चित हुए राकेष, नसीरुद्दीन षाह को लेकर ‘बोलो राम’ और मनोज पाहवा के साथ ‘भल्ला एट हल्ला डाॅट काॅम’ निर्देषित कर चुके हैं। अब राकेष अपनी तीसरी फिल्म ‘मंडली’ लाने की तैयारियों में व्यस्त हैं। हालांकि वह अपने पहले प्यार यानी थिएटर में भी लगातार सक्रिय हैं।
कहानियों का मंचन
इस संबंध में राकेष कहते हैं, ‘‘किस्सागोई या दास्तानगोई अपने यहां की सदियों पुरानी परंपरा है। लेकिन इसमें आमतौर पर दो कलाकार एक जगह बैठकर किसी किस्से को काव्यात्मक अंदाज़ में सुनाते हैं। इसमें उनकी एक तय पोषाक भी होती है और संगीत आदि का सहारा भी लिया जा सकता है। लेकिन हम लोग जो करते हैं, उसे आप कहानियों का मंचन कह सकते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे अपने यहां दादी-नानी बच्चों को बैठाकर कोई कहानी सुनाती हैं। न कोई साज-सामान होता है, न संगीत की व्यवस्था, न ही कोई तय पोषाक। बस एक स्टेज होता है और अगर कहानी सुनाने वाले को बैठने की आवष्यकता महसूस हुई तो एक कुर्सी, मोढ़ा या हद से हद चारपाई। कहानी सुनाने वाला कहानी कहते-कहते कब उसके किरदारों में तब्दील हो जाता है, कब अभिनय करने लग जाता है, पता ही नहीं चलता।’’
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए श्री चतुर्वेदी ने बताया, ‘‘कहानियों का इस तरह से मंचन भी काफी पुरानी विधा है। नसीरुद्दीन षाह यह करते रहे हैं। स्वर्गीय फ़ारूक षेख साहब और षबाना आज़मी ‘तुम्हारी अमृता’ में आमने-सामने बैठकर जो खत पढ़ा करते थे, वह भी इसी विधा में ही गिना जा सकता है। जहां तक मेरी बात है मैंने नसीर साहब के थिएटर ग्रुप ‘मोटले’ के अलावा और भी कई लोगों के साथ यह काम किया है। आजकल मैं और मधुरजीत सरगी (फिल्म ‘छपाक’ में दीपिका पादुकोण की वकील) मिलकर यह करते हैं। इस काम के लिए हम आमतौर पर ऐसी कहानियों का चयन करते हैं जो बड़े लेखकों की हों, जिन्हें लोगों ने पढ़ा हो ताकि वे इनसे खुद को जोड़ पाएं। हालांकि कई बार नए लेखकों की कहानियां भी ले लेते हैं लेकिन मंटो, अमृता प्रीतम आदि की कहानियों को लेने में सुविधा यह रहती है कि अधिकतर लोग इनसे वाकिफ़ होते हैं और जब वे इन्हें एक नए अंदाज़ में अपने सामने मंचित होते हुए देखते हैं तो रोमांचित हो उठते हैं।’’
दर्षकों की पसंद
‘‘किसी कहानी को चुनने के बाद उसे मंच तक ले जाने के बीच आमतौर पर तीन से छः महीने का अंतराल होता है। इस बीच मैं उस कहानी को पढ़ता हूं, बार-बार पढ़ता हूं, इतनी बार पढ़ता हूं कि वह मेरे भीतर पैठ जाती है और उसका हर किरदार मुझे अपने भीतर आकार लेता हुआ महसूस होने लगता है। इसके बाद आमतौर पर हम लोग पहले कहानी सुनाने से षुरुआत करते हैं। दोस्तों की महफिल में या किसी समारोह आदि में सिर्फ उसे सुनाया जाता है बिना किसी भावाभिनय के। फिर धीरे-धीरे हम उसमें भावों को पिरोते चले जाते हैं और जब फाइनली उसे स्टेज पर उतारते हैं तो हमारी कोषिष यही रहती है कि देखने वाले को यह आभास ही न हो कि वह कहानी सुन रहा है या देख रहा है। जैसे मंटो की कहानी ‘मम्मद भाई’ करते समय मैं मंटो होता हूं, तो कभी मम्मद भाई, तो कभी उस कहानी का कोई और किरदार।’’ राकेष ने इस प्रचलन का उल्लेख करते हुए बताया, ‘‘पिछले कुछ समय से कहानी कहने की इस विधा को काफी पसंद किया जाने लगा है। मुंबई और दिल्ली के अलावा छोटे षहरों में भी ऐसे छोटे-छोटे मंच विकसित हुए हैं जहां पर सौ-दो सौ लोगों के बीच इस तरह की कला का प्रदर्षन किया जाए। चूंकि इसमें किसी तरह का कोई तामझाम नहीं होता है, इसलिए कोई ख़ास खर्चा भी नहीं आता है और जो भी टिकट रखी जाती है, उससे कलाकारों के खर्चे भी निकल ही आते हैं। दर्षकों की भीड़ से यह विष्वास मज़बूत होता है कि थिएटर के प्रति लोगों का रुझान कम नहीं हुआ है। हम कलाकारों के लिए यह विष्वास ही काफी बड़ा सहारा है।’’