साकार होती परिकल्पना
सुनील मिश्र हमें खजुराहो नृत्य समारोह के बारे में बता रहे हैं, जो देह और मन के अनंत अनुराग का स्थल है
खजुराहो को विष्व पटल की अभूतपूर्व सांस्कृतिक धरोहर के रूप में रेखांकित किया जाए तो अतिष्योक्ति नहीं होगी। भारत के हृदय प्रदेष अर्थात् मध्य प्रदेष राज्य में यह स्थान चार अक्षरों के इस षब्द से दुनिया भर में जाना जाता है। विष्व सभ्यता में विभिन्न आष्चर्यों से भी अधिक आकर्शण और सम्मोहन रखने वाले इस स्थान पर पूरे वर्श विष्व भर से सैलानियों के आने-जाने का सिलसिला, किसी भी मौसम या ऋतु में कम नहीं होता। खजुराहो की यह विषिश्टता है कि जो भी यहां आता है, हर वातावरण में अपने आपको इसके समरस पाता है। यहां की ज़मीन पर पांव रखते ही भारतीय परम्परा, हमारी सभ्यता और मानव परिकल्पना का असाधारण कला-कौषल अपने वैभव के साथ आकृश्ट करना आरंभ कर देता है। इस बात का अनुभव किया गया है कि यही एक ऐसा स्थान है जहां पर लोग आराम या विश्राम करने नहीं बल्कि जागकर, समय का एक-एक क्षण घूमकर बिताना चाहते हैं। यहां के रहस्य देखकर, अपनी समझ के साथ ज्ञान और चेतना के सूत्रों से कुछ आकलन करके, कुछ अनुमान करके और कुछ संवेदना और कामनाओं से अनुभूत करके बहुत कुछ अर्जित करते हैं। वे जितना तृप्त होते हैं, उनकी जिज्ञासाएं और बढ़ जाती हैं।
अभिव्यक्ति का माध्यम
मध्य प्रदेष सरकार ने प्रकृति और चंदेल राजाओं की इस विलक्षण धरोहर पर भारतीय षास्त्रीय नृत्य परम्परा के एक ऐसे उत्सव की परिकल्पना लगभग चार दषक पहले की थी। इसमें विविध भाव मुद्राओं, षारीरिक चेश्टाओं और मोहक देहयश्टि की जीवन व्यवहार कला का बोध कराती प्रतिमाओं के बीच गुणी कलाकारों को अपनी उत्कृश्ट अभिव्यक्ति के लिए निमंत्रित किया जा सके। कवि, आलोचक तथा संस्कृतिकर्मी और तत्कालीन संस्कृति सचिव अषोक वाजपेयी ने 1975 में खजुराहो नृत्य समारोह को स्थापित किया। साथ ही, उसे वैभव प्रदान करने में अपनी अनूठी कल्पनादृश्टि का परिचय दिया। कलाओं की श्रेश्ठता, स्वतंत्रता और उत्कृश्ट सांस्कृतिक बोध को अपनी जिद और हठ के साथ अपनी श्रेश्ठता से स्थापित करने वाले वाजपेयी ने इस उत्सव को लगातार ऊंचाई प्रदान की। खजुराहो नृत्य समारोह देखते ही देखते दुनिया के बड़े और प्रभावित करने वाले सांस्कृतिक उत्सवों में प्रमुख उत्सव बन गया। यह उपलब्धि रही कि देष की षीर्शस्थ नृत्यांगनाओं ने अपनी सदिच्छा, कामना और जीवन के एक बड़े स्वप्न के रूप में खजुराहो में नृत्य करना षामिल किया। आज 40-42 वर्शों बाद भी खजुराहो नृत्य समारोह का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार रहता है। जब फाल्गुन की आहट होती है, खजुराहो के मंदिर जीवंत हो उठते हैं। इस समारोह में मन में तरंगें उठने लगती हैं। गुलाबी सर्दी के रूमान को महसूस किया जाता है। हर साल 20 से 26 फरवरी तक आयोजित होने वाले खजुराहो नृत्य समारोह के ये सात दिन सुंदर मंदिरों के आलोक में फैलता प्रकाष और संगीत तथा ध्वनियों के बीच नृत्यांगनाओं के घुंघरुओं का श्रृंगारपूर्ण अभिनन्दन वातावरण में चमत्कार रचता है। सांझ में होने वाले कार्यक्रमों में भारतीय षास्त्रीय नृत्य परंपराओं का उत्कर्शस्वरूप हर किसी को मोहित करता है। दर्षकों को अनुभूतियों से भर देता है और अपनी गहरी याद छोड़ जाता है।
अनोखी व्याख्या
खजुराहो को इतिहासकारों ने अपनी व्याख्या प्रदान की है। ज्ञानी अपने-अपने काल में अपनी समझ और दृश्टि से प्रेरित और विस्तारित कुछ न कुछ लिख गए हैं। इसे पढ़कर बहुत कुछ जाना जा सकता है। क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि खजुराहो, अजंता और एलोरा जैसे स्थान जो सदियों पुरानी अद्भुत, अनोखी और अनमोल पाशाण विरासत, स्थापित और नैसर्गिक पत्थरों पर से पीढ़ियों के श्रम और कल्पना तथा रचनात्मकता के विस्मयकारी सामंजस्य के साथ जिस धरोहर का निर्माण करते हैं, उसका वह ऐतिहासिक महŸव खड़ा करके जाते हैं। कलाकारों के न रहने के बाद भी ये मंदिर हज़ारों साल तक दुनिया, मानवीय जगत और हमारी जिज्ञासा को हतप्रभ किए हुए हंै। वह दृश्टि, वह चेतना आखिर है किस जीवट की। यह सोचा जा सकता है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आते हुए कोई भी इस तरह का कला-कौषल संवेदना और मर्म के कोमल अनुभवों को किसी प्रकार एक से दूसरे में प्रतिश्ठापित करता होगा ताकि एक पीढ़ी के मस्तिश्क में कौंध गया षिल्प दूसरी पीढ़ी के सृजन से साकार हो रहा हो। यह कम चकित कर देने वाली बात नहीं है।